रहीम के दोहे, Rahim Das Ke Dohe with Meaning in Hindi

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रहीम के दोहे, Rahim Das Ke Dohe with Meaning in Hindi
रहीम के दोहे, Rahim Das Ke Dohe with Meaning in Hindi

कहि ‘रहीम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति।
बिपति-कसौटी जे कसे, सोई सांचे मीत॥

अर्थ: रहीम दास जी ने इस दोहे में सच्चे मित्र के विषय में बताया है। वो कहते हैं कि सगे-संबंधी रूपी संपति कई प्रकार के रीति-रिवाजों से बनते हैं। पर जो व्यक्ति आपके मुश्किल के समय में आपकी मदद करता है या आपको मुसीबत से बचाता है वही आपका सच्चा मित्र होता है।

जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रहीम घटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती।

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।।

अर्थ: कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती। लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।

रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।

अर्थ: रहीम कहते हैं की आंसू नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही देगा।

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन’ मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥

अर्थ: इस दोहे में रहीम दास जी ने मछली के जल के प्रति घनिष्ट प्रेम को बताया है। वो कहते हैं मछली पकड़ने के लिए जब जाल पानी में डाला जाता है तो जाल पानी से बाहर खींचते ही जल उसी समय जाल से निकल जाता है। परन्तु मछली जल को छोड़ नहीं सकती और वह पानी से अलग होते ही मर जाती है।

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

अर्थ: रहीम दास जी इन पंक्तियों में कहते हैं जिस प्रकार पेड़ अपने ऊपर फले हुए फल को कभी नहीं खाते हैंए तालाब कभी अपने अन्दर जमा किये हुए पानी को कभी नहीं पीता है उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति/परोपकारी व्यक्ति भी अपना इक्कठा किये हुआ धन से दूसरों का भला करते हैं।

रहिमन नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं।।

अर्थ: जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।

संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं।।

अर्थ: जिस प्रकार दिन में चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन में फंस कर अपना धन गँवा देता है वह निष्प्रभ हो जाता है।

साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।

वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं है इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का भोजन करें।

राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि होनहार अपने ही हाथ में होती, यदि जो होना है उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे गए और सीता का हरण हुआ। क्योंकि होनी को होना था – उस पर हमारा बस न था इसलिए तो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।

थोथे बादर क्वार के, ज्यों ‘हीम’ घहरात।
धनी पुरुष निर्धन भये, करैं पाछिली बात॥

अर्थ: रहीम जी कहते हैं जिस प्रकार क्वार महीने में (बारिश और शीत ऋतु के बीच) आकाश में घने बादल दिखाई देते हैं, पर बिना बारिश बारिश किये वो बस खाली गडगडाहट की आवाज करते हैं, उस प्रकार जब कोई अमीर व्यक्ति कंगाल हो जाता है या गरीब हो जाता है तो उसके मुख से बस घमंडी बड़ी.बड़ी बातें ही सुनाई देती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता।

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।

अर्थ: रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।

तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।।

अर्थ: जिससे कुछ पा सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना उचित है, क्योंकि पानी से रिक्त तालाब से प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है।

माह मास लहि टेसुआ मीन परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।

अर्थ: माघ मास आने पर टेसू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है. इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है. मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।

धरती की सी रीत है, सीत घाम औ मेह।
जैसी परे सो सहि रहै, त्‍यों रहीम यह देह॥

अर्थ: इस दोहे में रहीम दास जी ने धरती के साथ-साथ मनुष्य के शरीर की सहन शक्ति का वर्णन किया है। वह कहते हैं कि इस शरीर की सहने की शक्ति धरती समान है। जिस प्रकार धरती सर्दी-गर्मी वर्षा की विपरित परिस्थितियों को झेल लेती है। उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी जीवन में आने वाले सुख-दुःख को सहने की शक्ति रखता है।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय।।

अर्थ: रहीम जी कहते हैं कि प्रेम का धागा अर्थात रिश्ता कभी तोड़ना नहीं चाहिए। अगर एक बार यह प्रेम का धागा टूटता है तो कभी नहीं जुड़ता और अगर जुड़ भी जाए तो उसमें गांठ पड़ जाती है। कहने का अर्थ यह है कि रिश्तों में दरार आ जाये तो खटास रह ही जाती है।

Rahim Das Ke Dohe with Hindi Meaning

रूठे सुजन मनाइये, जो रूठे सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइये, टूटे मुक्ताहार।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि अगर आपका कोई खास सखा अथवा रिश्तेदार आपसे नाराज हो गया है तो उसे मनाना चाहिए। अगर वो सौ बार रूठे तो सौ बार मनाना चाहिए, क्योंकि अगर कोई मोती की माला टूट जाती है तो सभी मोतियों को एकत्र कर उसे वापस धागे में पिरोया जाता है।

रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवारि।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि अगर कोई बड़ी वस्तु मिल जाए तो छोटी वस्तु को नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि जो काम एक छोटी सुई कर सकती है, उसे बड़ी तलवार नहीं कर सकती। अर्थात जो आपके पास है उसकी कद्र करें, उससे अच्छा मिलने पर जो है उसे ना भूलें।

जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति योग्य और अच्छे चरित्र का होता है, उस पर कुसंगति भी प्रभाव नहीं डाल सकती। जैसे जहरीला नाग यदि चंदन के वृक्ष पर लिपट जाए तब भी उसे जहरीला नहीं बना सकता।

खीरा सिर से काटिये मलियत नमक बनाय।
रहिमन करूए मुखन को चहियत इहै सजाय।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जिस तरह खीरे को काटकर उसमें नमक लगाकर उसके कड़वेपन को दूर किया जाता है, उसी प्रकार कड़वे वचन बोलने वाले व्यक्ति को भी यही सजा मिलनी चाहिए।

रहिमन थोरे दिनन को, कौर करे मुँह स्याह।
न्हीं छलन को परतिया, नहीं कारन को ब्याह।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि थोड़े दिन के लिए कौन अपना मुँह काला करता है, क्योंकि पर नारी को ना धोखा दिया जा सकता है और ना ही विवाह किया जा सकता है।

गुन ते लेत रहीम जन, सलिल कूप ते काढि।
कूपहु ते कहूँ होत है, मन काहू को बाढी।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जिस तरह गहरे कुँए से भी बाल्टी डालकर पानी निकाला जा सकता है। उसी तरह अच्छे कर्मो द्वारा किसी भी व्यक्ति के दिल में अपने लिए प्यार भी उत्पन्न किया जा सकता है, क्योंकि मनुष्य का हृदय कुँए से गहरा नहीं होता।

जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जिस तरह धरती माँ ठण्ड, गर्मी और वर्षा को सहन करती हैं, उसी प्रकार मनुष्य शरीर को भी पड़ने वाली भिन्न-भिन्न परिस्थितियों को सहन सहन करना चाहिए।

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जिस प्रकार मेंहदी लगाने वालों को भी उसका रंग लग जाता है, उसी प्रकार नर सेवा करने वाले भी धन्य हैं उन पर नर सेवा का रंग चढ़ जाता है।

समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है। झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है. सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है।

ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै।।

अर्थ: ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए. हर अवस्था में उससे हानि होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है।

वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर।।

अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं।

रहिमन मनहि लगाईं कै, देखि लेहू किन कोय।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि शत प्रतिशत मन लगाकर किये गए काम को देखें, उनमें कैसी सफलता मिलती है। अगर अच्छी नियत और मेहनत से कोई भी काम किया जाए तो सफलता मिलती ही है, क्योंकि सही और उचित परिश्रम से इंसान ही नहीं भगवान को भी जीता जा सकता है।

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध-नरेस।
जा पर बिपदा पड़त है, सो आवत यह देस।।

अर्थ: इस दोहे में रहीम जी चित्रकूट को मनोरम और शांत स्थान बताते हुए सुन्दर रूप में वर्णन कर रहे हैं। वो कह रहे हैं कि चित्रकूट ऐसा भव्य स्थान है जहाँ अवध के राजा श्रीराम अपने वनवास के दौरान रहे थे। जिस किसी व्यक्ति पर संकट आता है वह इस जगह शांति पाने के लिए इस स्थान पर चला आता है।

बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।

अर्थ: रहीम जी ने इस दोहे में कहा है कि जिस प्रकार फटे हुए दूध को मथने से मक्खन नहीं निकलता है, उसी प्रकार अगर कोई बात बिगड़ जाती है तो वह दोबारा नहीं बनती। इसलिए बात को संभालें ना कि बिगड़ने दें।

रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि उस व्यवहार की सराहणा की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान हो घडा और रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं जब घडा कुँए में जाता है तो रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है।

निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता।

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष चून।।

अर्थ: रहीम जी कहते हैं कि इस संसार में पानी के बिना सब कुछ बेकार है, इसलिए पानी को हमें बचाए रखना चाहिए। पानी के बिना सब कुछ व्यर्थ है चाहे वह मनुष्य, जीव-जन्तु या अन्य वस्तु हो। ‘मोती’ के विषय में बताते हुए रहीम जी कहते हैं कि पानी के बिना मोती की चमक का कोई मूल्य नहीं है। ‘मानुष’ के सन्दर्भ में पानी का अर्थ मान-सम्मान या प्रतिष्ठा को बताते हुए उन्होंने कहा है जिस मनुष्य का सम्मान समाप्त हो जाये उसका जीवन व्यर्थ है।

रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय।।

अर्थ: रहीम जी इस दोहे में कहते हैं कि हमें अपने मन के दुःख को अपने मन में ही रखना चाहिए क्योंकि किस दुनिया में कोई भी आपके दुःख को बांटने वाला नहीं है। इस संसार में बस लोग दूसरों के दुःख को जानकर उसका मजाक उडाना ही जानते हैं।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।।

अर्थ: रहीम कहते हैं की अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।

अर्थ: वर्षा ऋतु को देखकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है. अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता. अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है. उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं।

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।

अर्थ: रहीम कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है. जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत।
ते रहीम पशु से अधिक, रीझेहु कछू न देत।।

अर्थ: रहीम दास जी कहते हैं कि मृग मधुर तान पर मोहित होकर स्वयं को शिकारी को सौंप देता है और मनुष्य किसी भी कला से मोहित होकर उसे धन देते हैं। जो मनुष्य कला पर मुग्ध होने के बाद भी उसे कुछ नहीं देता है वह पशु से भी हीन है। हमेशा कला का सम्मान करो और उससे प्रभावित होने पर दान जरूर करें।

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